Monday, November 28, 2016

मन का अल्पविराम

मन का अल्प  विराम
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कई बार ऐसा होता था

एक ठहराव सा आता था

पर फिर खुद ही बहने लगती थी

मन की धारा ,

हाँ, हर बार कोई ताकत

देती थी मेरा साथ

और खुशियो का सिरा

आ जाता था मेरे हाथ

मन फिर से हँसने लगता

और रम जाती  मैं

अपनी दीन दुनिया मेँ

जलने लगते थे दीप पूजा के ,

हटने लगते थे

धूल और जाले और

सज जाते थे बच्चों की

शरारतो से उजड़े सोफे और कुशन!

पहले तो मन नहीं था बैठा रहता

मुरझाया चेहरा देख के इस तरह!

ढूँढता था वो गुलाब जल ,चन्दन,

पढता था नए - नए ब्यूटी टिप्स।

अपनी ही बातों को काटता

फिर अपनी ही बातो को मानता

बढ़ता रहता था मन।

अपने बच्चो को डाँटकर
फिर उन्हें मनाता  मन

अब चुपचाप देखा करता
है उन्हें  ,
रोकता-टोकता नहीं!!

क्या ये भी मन का अल्प विराम है ?

हाँ, ये मन का अल्प विराम ही  तो है

ऐसा होता रहता है,

मन रूकता - बढ़ता रहता है ।
देखो ना .......

बच्चे अब बड़े हो चुके  हैं,
कि यूँ ही

रूकते - भागते बढती जाती है जिंदगी

यूँ ही रूठते-मनाते गुजर जाती है जिंदगी

इन अल्प विरामो से कभी  मत घबराना

कि जिंदगी का नाम है चलते जाना ।

- सीमा श्रीवास्तव

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