डर कितना स्वाभाविक होता है ना!
इसी डर के कारण हम चैन से जी नहीं पाते...
जलने, कटने, छिलने से बचते - बचते हम
मौत तक का सफर तय करते हैं
और फिर पूरी तरह जल जाने तक
हमारी आत्मा वहीं
प्रतीक्षा करती रहती है
उसके बाद वह शुरू करती है
अपने नए सफर की तैयारी।
फिर से नए डर, नए घर, नए तन की
एक नई शुरुआत होती है!
जीवन चलता रहता है!
- सीमा
(इतने सारे डर के साथ एक अकेले हम)
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