इच्छाएं
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कई इच्छाएं
दुबक के सोए-सोए
टेढ़ी हो चुकी हैं।
जब भी टटोलती हूँ
मन को
ये कुनमुनाती हैं।
दुबक के सोए-सोए
टेढ़ी हो चुकी हैं।
जब भी टटोलती हूँ
मन को
ये कुनमुनाती हैं।
इन इच्छाओं के बस
नाम भर रह गए हैं।
अब इनमें वो ललक नहीं रही।
नाम भर रह गए हैं।
अब इनमें वो ललक नहीं रही।
इन आलसी सी
इच्छाओं को
रोज धूप,पानी देती हूँ
कि ये फिर से देह झाड़ कर
चल-फिर सकें
कि बिना इनके जिंदगी
जिंदगी सी नहीं लगती।
- सीमा
इच्छाओं को
रोज धूप,पानी देती हूँ
कि ये फिर से देह झाड़ कर
चल-फिर सकें
कि बिना इनके जिंदगी
जिंदगी सी नहीं लगती।
- सीमा
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