Saturday, May 23, 2015

    आशाएँ
**********************
कितनी बार डूबी हूँ ,

फिर खुद ही
सूरज की किरणों को पकड़
निकल आई हूँ बाहर !

मेरे मन का कोना ,कोना
आशाओ से है ओत - प्रोत !
फिर भी

अपने जिस्म पे उभर आये

जख्मो को देख जब घबड़ा जाती हूँ

मै हो जाती हूँ गुमशुदा ,
खो जाती हूँ , यादो के जंगल मे

और उलझते - उलझते
और भी जख्मी हो जाती हूँ !!

- सीमा

No comments:

Post a Comment