Friday, March 27, 2015

बेटियाँ


बेटियाँ बड़ी हो जाती थी ,

ढकते ,ढांकते ,छुपते ,छुपाते | 

कुम्हलाई सी ही विदा कर दी जाती थी  | 

करती  रहती थी लुके ,छिपे ही कितने सृजन ,
कितनी रचनाये लिखती रहती थी माटी पर 
पैरो की नखों से ,

वो उस चाँद सी रहती थी जो
 बादलो के पीछे से 
 हरदम झाँका करता है !

वो बाहर की दुनिया से बेखबर
  बुनती रहती थी 
सलाइयों पर अपने मन के रंगो के ताने बाने। 

उनके सपनो की उड़ान भी उनके छतो जितनी ही ऊँची थी ।  

समय बदलता गया ,

लड़कियौ ने देहरी फांद कर आसमान छू लिया। 

अब वो सपने नहीं संजोती 

सपनो को सच करने की जिद रखती हैं 

रोज उड़ती हैं अपने सपनों के साथ 

दुनिया भर की  गली ,कूचियो  में !!

- सीमा 




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