Friday, November 21, 2014

मन का अल्प विराम

 मन का अल्प  विराम
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कई बार ऐसा होता था

एक ठहराव सी आती थी

पर फिर खुद ही बहने लगती थी

मन की धारा ,

हाँ हर बार कोई ताकत

देती थी मेरा साथ

और खुशियो का सिरा

आ जाता था मेरे हाथ

मन फिर से हँसने लगता

और रम जाती  मैं

अपनी दीन दुनिया मेँ

जलने लगते थे दीप पूजा के ,

 ,हटने लगते थे

धूल और जाले ,और 

सज जाते थे बच्चों की

शरारतो से उजड़े सोफे और कुशन

पहले तो मन नहीं था बैठा रहता

मुरझाया चेहरा देख के इस तरह

ढूँढता था वो गुलाब जल ,चन्दन,

पढता था नए नए ब्यूटी टिप्स।


अपनी ही बातों को काटता

फिर अपनी ही बातो को मानता

बढ़ता रहता था मन।

अपने बच्चो को डाँटकर
फिर उन्हें मनाता  मन

अब चुपचाप देखा करता
है उन्हें  ,कुछ कहता नहीं!!

क्या ये भी मन का अल्प विराम है ???



हाँ ये मन का अल्प विराम ही  था

ऐसा होता रहता है,

मन रूकता ,बढ़ता रहता है ।
देखो ना .......

बच्चे अब बड़े हो चुके  हैं, कि यूँ ही

रूकते ,भागते बड़ी हो जाती है जिंदगी

यूँ ही चलती, निकल जाती है जिंदगी

इन अल्प विरामो से कभी  मत घबराना

कि जिंदगी का नाम है चलते जाना ।

- सीमा श्रीवास्तव

(मेरी एक पुरानी अधूरी रचना जो आज पूरी हो गई )

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