Sunday, August 31, 2014

डोली चढ़ने से पहले

         डोली चढ़ने से पहले
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मेरी हर गलती पर
रोने से पहले
 तुम

सहला दोगे
मेरी पीठ

मेरी आँखों से
ढलकते आँसू को
रोक लोगे
 तुम

अपनी हथेली पर

मेरी हीन भावना को
निकाल दोगे
 तुम

हौंसले की बाते करके

मेरे अंदर के
 डर को भगा
तुम

भर दोगे अपनी हिम्मत

मेरे सपनो की स्याह
 हो चुकी दुनिया को
सजा दोगे
तुम

  सुनहले रंगो से

बस ऐसे ही  कुछ

सजीले सपने

संजोए रहती होगी एक

मासूम सी लड़की,

डोली चढ़ने से पहले ......

सीमा श्रीवास्तव


जलेबी

         जलेबी 

 जलेबी की तरह 
ही तो ,

है जिंदगी,

टेढ़ी मेढ़ी ,

उलझी उलझी । 

फिर भी ,जाने क्यों 

लगती  है 

मीठी ,रसीली 

कुरकुरी । 

सीमा श्रीवास्तव 







Saturday, August 30, 2014

बेबाक


वो लिखती है बेबाक
पूरे धडल्ले से वो
कह जाती है ,
सारी बातें,जिन्हे
हम कहने से कतराते है
या टाल जाते हैं......
वो बिल्कुल भी नही
हिचकिचाती
अपने अंतर्मन की सारी
कथा कह जाती..!
हम सोचने लगते है,
कहे ना कहे,
तब कलम भी
चलती है रूक रूक के
और शब्द भी
नही बांधं पाते
एक दूसरे को...
कुछ देर बाद हम खुद ही
भूल जाते हैं कि
हमें...कहना
क्या था ...
बाते रफा दफा हो
जाती हैं,पर अंकित
रह जाती हैं,गहरे मे कहीं
दिलो दिमाग के अंदर !
पता है.....,
बदन पर कभी कभी
जो फुंसियॉ उभर आती हैं
वे उन्ही अंनकहे बातो की
निशानी है,.....
जिन्हे दबा चुके होते हैं
हम गहराई मे....
उन्ही फुंसियों को,
फिर अपने ही नख से नोंच कर
हम बना डालते हैं घाव...
जिंनकी टीस उठती रहती
है ताउमर....
>>>>>>>>>>>
सीमा

Friday, August 29, 2014

शब्द

          उथल पुथल
…………………………

(1)

क्यों इतनी उम्मीदे
बांध लेते हो मुझसे

कि खुद पर मुझे
 शक होने लगे

(2)

क्या कहूँ  तेरे
इस प्रेम को

जहॉ शब्द कम है
उम्मीदे ज्यादा हैं 

(3 )

विचलित होती हूँ
तेरी ही बात से

फिर तुझ पे ही
आ के सिमट जाती हूँ

सीमा श्रीवास्तव

घायल

(१)
तोड़ना चाहते  थे ना
लो  टूट चूकी हूँ मैं

समेटना चाहोगे भी तो
समेट  नहीं पाओगे ।

(२ )

तोड़  के मुझको
बोलो  भला  क्या पाओगे

नोक  से    इनकी
 घायल ना तुम हो जाओ कही.

सीमा श्रीवास्तव

(बस यूँ ही ,एक उदास चेहरे पर लिखे शब्द ) 

Wednesday, August 27, 2014

क्यों नहीं

                      व्रत त्योहार

क्यों नही रखते
पति अपनी पत्नियों
के लिए व्रत,

क्यों नही बनाये जाते
पतियों के लिए कुछ
व्रत ,त्यौहार ,नियम
जिन्हे  वो कर सकें
अपनी पत्नियों के लिए

शायद इसीलिए  कि
औरतों को ही सिर्फ
सहना सिखाया जाता है
मर्दों को कहाँ कोई नियम
पढ़ाया जाता है

और औरतें भी
ख़ुशी ख़ुशी हर
नियम का पालन
 करती हैं और
सदियों तक इन्हीं
परम्पराओं में
अपना अस्तित्व
ढूंढती रहती हैं

सीमा श्रीवास्तव


Tuesday, August 26, 2014

बच्चे

कुछ लोग

अपनी चीजे

बहुत सँभाल कर

 रखते हैं.....

दो चार

 छोटे बच्चे,

भेज देती हू

 उनके घर। ....

  सीमा श्रीवास्तव 

माँ

माँ ने जगाया
बोला उडना,
छोड दो..
आकाश मे
सीखो..
धरती पे रहना...

सीमा श्रीवास्तव

Monday, August 25, 2014

जुगाड़

(1)

रोज करते रहो

खुशियो का जुगाड

जिन्दा रहने के लिए

खुद से करो प्यार

(2)

चलो हौसले का

एक पूल बनाये

गम के दरिया के

ऊपर से गुजर जाये

सीमा श्रीवास्तव

बेरहमी

किसने इतनी
बेरहमी से

तोडा है दिल
तुम्हारा...

कि सबके
दिल को
तोडने पर

तुम यूं
आमादा हो...

सीमा श्रीवास्तव.

पत्थर का शहर

पत्थर के शहर
में पली

पत्थर सी  हो गई
औरत

खोजती  है  उस
 राम को

जो उसे

 छू के ,फिर से
कर दे सजीव

निखरने दे
उसके   जीवन  को

सँवरने दे
उसके उपवन को 

सीमा श्रीवास्तव

पनाह

अगर भावनाओ को कविता और कहानी का विश्रामस्थल नहीं  मिला होता तो ना जाने ये कहॉ भटकती...??


पनाह देतीं हैं
शब्दो को
कविताये,अपनी
 गोद मे...और
कहानियॉ  समेट
लेती हैं
अपने
आगोश में

सीमा श्रीवास्तव
        तलब 
************

प्रायः हर किसी को
होती  है हर सुबह
एक  प्याली, चाय
 की तलब (,इच्छा)

चाय की तलब तो
 नही मुझे ,पर
है कुछ तलब

 जो
ज़िंदा रखती
है मुझे

हर सुबह
 उठाती है

अपनी तलब
जगाती है


और

हर रात
मीठे सपनों में
डुलाती है

जीवन में

नया रंग

भर जाती है

और ताजगी

लाती है

_सीमा श्रीवास्तव



सुख - दु:ख

रोज छाँटती हूँ
दिन की थाली से
दुःख के कुछ
कंकड़ पत्थर ,

रोज निकालती हूँ
मन से विकारों को
और जलाती हूँ
घर में ,
धूना ,बाती ,अगर

सीमा श्रीवास्तव

अगर  = अगरबत्ती

नदियाँ

       नदियाँ
>>>>>>>>>>>>

नदियों के सब्र का

मत लो इम्तिहान।

किसी दिन भी

बहुत भर आने पर

तोड़ देंगी ये सीमाएं,

ले लेगी रूप विकराल

फिर तहस नहस

हो जायेंगे गाँव

और शहर

कितने ही घर

हो जायेंगे वीरान

अगर  आ  जायेगा

नदियों में उफ़ान॥


सीमा  श्रीवास्तव

क्यों लड़ते हो?

क्यों लड़ते हों .?


मंदिर ,मस्जिद
गुरूद्वारों के लिए लड़ो

गलियो और चौबारों
के लिए लडो

जात ,पात ,प्रान्त
के मुद्दें पे लड़ो

स्त्री पुरुष के नाम
पर भी लड़ो

लड़ो ,कि तुम्हें
गर लड़ना ही
हो पसंद


भगवान के
द्धार पर आ के
बँटवारे के लिए
लड़ो।

सीमा श्रीवास्तव

Sunday, August 24, 2014

मुश्किल

मुश्किल होता है ना!!!
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं।।

कितना मुश्किल
होता है ना,

मॉ की बातो
को काटना..,

पिता की हर
पाबंदी के
अंदर हंसना बोलना,

सदियो से चली
आ  रही परम्पराओ
को ढोना और
लकीर के फकीर
बने रहना..,

तीज त्योहारो के
नियमो मे फेर बदल,

अपनी तबीयत के
 हिसाब से
 उठना जगना..,

आसान नही
है अपने हिसाब से
अपने रास्ते तय
कर पाना..,
बिना रोक टोक
के जी पाना


बेगुनाह होते
हुए भी
 सजा  पाना..।
शायद इसे ही कहते है
समाज का एक
हिस्सा बन जाना..।

- सीमा श्रीवास्तव


रहम

तुम्हारे शहर  की

गलियाँ बड़ी

तंग निकली

कुछ तो

रहम करो

राहगीरों पर 

सीमा श्रीवास्तव 

स्नेह



स्नेह की
गर्माहट पाकर
भाप बन
निकल आते
हैं आँसू

सीमा श्रीवास्तव

धीमी आँच

धीमी आँच
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

ऐसा नही कि

मुझे तेरा
 ख्याल नही

पर छोड दिया है
इस रिश्ते को

मीठी सी धीमी
आँच पर

थोड़ा और
पकने के लिए

ढक्कन लगा के

सीमा श्रीवास्तव 

Saturday, August 23, 2014

शेखचिल्ली

शेखचिल्ली से
सपने देखता
बचपन तय
करता है
कई रस्ते ।

सपनो की
टोकरी में
हिलते डुलते
अंडे क़ुछ
टूट जाते हैं ,
और   जो
बच जाते  है
उनसे निकलते हैं
फिर चूजे और
इधर उधर
भागते हैं

सीमा श्रीवास्तव

Friday, August 22, 2014

खुशियाँ

खुशियों  को ख़त्म
कर देती  है ,
कभी ,शंका ,
कभी डर ,
कभी उपेक्षा
कभी हीन भावना 

सीमा श्रीवास्तव 

Wednesday, August 13, 2014

बादल

खुशियाँ जाने कहाँ
खो जाती है ?
क्या ये भी
 चल देती है
बादलो की  तरह
कहीं और बरस जाने ?
तो फिर खुश हूँ मैं
इस बात से कि
कहीं तो हो रही है
बारिश खुशियो की

सीमा श्रीवास्तव

Friday, August 8, 2014

मन्नत


मन्नतों मेँ
 बहुत कम ही
माँगी जाती हैं
बेटियाँ ,
पर बेटियाँ
 माँगती,फिरती
      हैं
मन्नते ,उम्र  भर!!
- सीमा श्रीवास्तव

सीमा श्रीवास्तव

#Evetease

खुशियों का छू हो जाना
....... ...................……
जब  ख़ुशी से
इतराती
कोई लड़की,
अपनी सहेलियों को
चिढ़ाती ,भाग के निकल
पड़ती है,उनसे बहुत दूर

और अचानक ही
 ठिठक  पडती हैं ,
गुलछर्रे उड़ाते कुछ
लड़को  को.……
 देखकर। ……

तो  इसे कहते हैं
खुशियों का छू  हो जाना ।


सीमा श्रीवास्तव 

पाबंदी

पाबंदियों के

 जूतियों  में सिले
पाँव जाने

 कब इतने बड़े

  हो गए कि

जूतियाँ तो

 फट गई

पर फीते अब भी

 है बंधे हुए

सीमा श्रीवास्तव




संवेदनहीन

संवेदनहीन नहीं   हैं  हम ,
प्रभावित करती हैं  हमें भी ,
अखबार में छपी खबरें
कराहता है हमारा भी मन
पर अपनी परिधि के अंदर
हम भी कम व्यथित नहीं रहते

समस्याऍ यहाँ भी कम नही

चिंताएँ यहाँ भी हैं भिन्न भिन्न

यहाँ भी कम दवाब नहीं

बैठे रहते हैं हम अपनी परिधि में
झुँझलाए से ,..........

फिर अचानक उठते हैं ,
टी. वी.  ऑन करते  हैं,
देखते हैं …
कोई कॉमेडी शो ,
और थोड़ा हस लेते हैं

फूहड़ों जैसा,,,,,,,

सीमा श्रीवास्तव

Saturday, August 2, 2014

बाजी

तुम खेल ही जाते हो
कोई ऐसी बाजी
जहाँ मै मात ना
दे पाऊँ तुम्हे। …

सीमा श्रीवास्तव 
आसमाँ में उभरे

 उस छितरे से

चाँद को देखा है  कभी। ……

जो बादलों की

 चहल पहल से

दिखता है

बंटा बंटा सा

ढक देता है

 उसका असली चेहरा

बादलों का  कतरा कतरा

सीमा श्रीवास्तव 

बच्चे

कुछ लोग अपनी चीजें

बहुत सँभाल कर रखते हैं

दो चार छोटे बच्चे

भेज देती हूँ उनके घर। .... 

सीमा श्रीवास्तव 

Friday, August 1, 2014

आपाधापी

आज फिर मेरी
कंघी गुम हो गई 
कहीं … 
ये कंघिया ,
ये पेन ,और ऐसी 
ही कुछ छोटे मोटे 
चीज ,अक्सर  
ही खो जाते  है 
जीवन की
 आपा धापी  मेँ ,
और फिर हम 
उन्हें ढूंढ़ते  फिरते  हैं 
क्यूंकि  हम अपनी ही 
कंघी से केश सँवारना 
चाहते हैं और अपने  ही 
कलम से लिखना चाहते है 

पर  इन्हें संभाल कर रखना
भूल जाते हैं इस
 जीवन की 
आपा धापी  में! 

सीमा श्रीवास्तव