Tuesday, July 29, 2014

बेतहाशा

बेतहाशा के क्षण 
निराशा के क्षण

जब लगता है
कि हम रूह होते
तो बेह्तर होता

ळोगो कि नजर
नहीं भेद्ती हमे
बारी बारी से

रूह होते तो
 नहीं सोचते 
सिर्फ खुद के लिये 

दुआएँ करते 
बाकी सारी
 रूहों के लिये 

जो किसी न किसी
 शरीर में
दबे तरस रहे हैं
शान्ति के लिए

बेताब हैं
रूह बनने के लिए

*********** सीमा श्रीवास्तव********



6 comments:

  1. पढ़ते ही निकला पहला शब्द ,वही लिख भी रही हूँ .... बेहतरीन ....

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  2. Nivedita ji..bahut bahut dhanaywaad....,

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  3. क्या पता फिर रूह क्या करती

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    1. एक अच्छी रूह हमेशा भलाई ही करती है,ऐसा सुना तो है मैंने दीदी....:)..शुक्रिया दीदी

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  4. रुह सबकुछ देख सकती है...उसे कोई नहीं...सुन्दर !!

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  5. शुक्रिया ऋता दीदी....,

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