Tuesday, July 29, 2014

रोशनी



जाने कब अपने भीतर का

अँधियारा

 तोड़ने लगता है, दीवारें

हमें पता भी नहीं चलता।

 उजाला बना लेता है

चुपचाप अपनी पहचान ,
  मन के अंदर
 कि उसे तो बस
 थोड़ी सी जगह चाहिए

अंदर आने के लिए !!


-  सीमा श्रीवास्तव

(रोशनी एक छोटी सी जगह से भी आ सकती है )

बेतहाशा

बेतहाशा के क्षण 
निराशा के क्षण

जब लगता है
कि हम रूह होते
तो बेह्तर होता

ळोगो कि नजर
नहीं भेद्ती हमे
बारी बारी से

रूह होते तो
 नहीं सोचते 
सिर्फ खुद के लिये 

दुआएँ करते 
बाकी सारी
 रूहों के लिये 

जो किसी न किसी
 शरीर में
दबे तरस रहे हैं
शान्ति के लिए

बेताब हैं
रूह बनने के लिए

*********** सीमा श्रीवास्तव********



कदम

तुम अपने कदमो से
जमीन नापो
मै अपने क़दमों से
देखती हूँ तुम
कहाँ कहाँ रूकते हो
और मै कहाँ कहाँ
तुमसे मिलती हू
सुनो

मुझे पता है कि तुम
 रुकोगे नहीं कही

पर मै तो हर जगह
चाहूँगी कुछ देर थमना
क्युकि रास्ते नापने तो
आसान हैं पर उन्हें
समझना है ज़रा मुश्किल

       सीमा श्रीवास्तव

Sunday, July 27, 2014

मुझे कुछ कहना है!

आकाश का यूँ बदला-बदला रंग क्यों है ? 
आदमी का यूँ बदला-बदला ढंग क्यों है ?
जज्बातों पर हर पल इतना बंध क्यों है ?
फिज़ाओं में हर पल बारूदी गंध क्यों है ?
हाथों में निवालों  के बदले  संग क्यों है ?
भूख की खातिर ज़िंदगी में जंग क्यों है ?
जो जवाबदार है इन कोहपैकर सवालों के -
उनसे मुझे कुछ कहना है !
मुझे कुछ कहना है।  
 (संग = पत्थर, कोहपैकर = भीमकाय, विशाल.)