Monday, December 29, 2014

समंदर

     समंदर
ंंंंंंंंंंंंंंंं
कुछ रिश्ते ही तो
समंदर बन पाते हैं,
वरना नदियों सी बस
बहती जाती है जिंदगानी...)
सीमा श्रीवास्तव...
और ये रही मेरी पूरी रचना  जिसकी अंतिम चार पंक्तियो को मैने ऊपर लिखा है 
"मेरा और तुम्हारा रिश्ता
कई रिश्तो का संगम है
तभी तो यह बन चुका है समंदर,
हरदम कितनी मौजें उठती है इसमें,
कितनी लहरें आती हैं,जाती हैं....
कोई गोते लगा कर तो देखे
कितने अमूल्य धरोहर
दबा रखे हैं हमने
सच बडी मुश्किल से
कुछ रिश्ते समंदर
बन पाते हैं..
वरना नदियों सी
बहती जाती है
जिंदगानी...."
सीमा श्रीवास्तव

अब आप बताए..कि ऊपर की चार पंक्तियॉ..को ही लिख कर छोड दूं या पूरी रचना को लिखना जरूरी है...

Friday, December 26, 2014

हकीकत

मैं चाहती थी लिखना ,

रेत पर तुम्हारे और मेरे नाम के 

पहले अक्षर। …… 

तुमने कहा सब हसेंगे हम पर ,

मैंने चाहा लहरो के साथ 

कुछ देर खेलना ,

तुम हाथ खींच बहुत 

दूर ले गए ,

कहा लहरों का कोई 

भरोसा नहीं । 

 मुझे पता है कि तुम्हें

कितनी फिक्र है मेरी

सच ,तुम हकीकत से जुडे होते हो

इस हद तक  कि मैं चाह के  भी 

 रोमानी हो नहीं पाती....

सीमा श्रीवास्तव...



Thursday, December 25, 2014

कुछ बुरे लोग

 कुछ बुरे लोग
ंंंंंंंंंंंंंंंंं

सुनो दोस्त..

कुछ लोग चाह्ते ही हैं कि

इतनी गंदगी बिखेर दें कि

हमारा चलना  मुश्किल हो जाए

इतने गड्ढे खोद दें कि

 सँभलते सँभलते हम गिर ही जाए! 

ऐसे लोग बिलकुल भी नहीं शर्माते 

ये खुद ही कुछ ऐसा कर बैठते हैं  

कि हमें बंद कर लेनी पड़ती है 

अपनी आँखे! 

ये गन्दगी के पोषक होते है, 


अरे!ये  तो चाह्ते ही हैं  उलझा के रखना सबको

तबाही मचाने,आग लगाने और गर्द उडाने में 

ये लेते हैं मजे, ये चाह्ते हैं कि तुम भी आकर समेटो

इनके फैलाए कीचड को और गंदे करो अपने हाथ !

सीमा श्रीवास्तव

Monday, December 22, 2014

रात


जब रात शांति ओढ के 

खडी होती है ,


तब  मन का सन्नाटा 


रात की बांहे पकड़ के 


जाने क्या -क्या बतियाता है !


दिन भर की सुनाता है !


और  आँखे मन की राह 


तकते-  तकते कब 


पलकें बंद कर लेती है 


पता भी नहीं लगता ।


जाने कितने सपने

आते जाते रहते है
रात  भर......!!

- सीमा श्रीवास्तव





Tuesday, December 16, 2014

कमल

       कमल
************

अपनी तहजीब को अपने पास

सम्भाले रखना ऐ दिल 

कि तेरे पसंद की यहाँ 

हर एक बात ना होगी ,

बहुत कुछ देख कर भी तू 

बंद रखना  ये जुबां 

कि तेरी पसंद से मिलती यहाँ 

हर राह  ना होगी!!

 जरदोस्त हैं जो वो  देखें  सकेगे ना

  जमाल इस  दिल का 

कि तू लगा दे इस दिल को

खुदा की बंदगी में!!

ये ना सोच जरूरत क्या है

यहॉ भला तेरी

कि कमल खिलते हैं औ

मुस्कुराते हैं कीचड में भी!!


(जरदोस्त -  धन को सबसे अधिक प्रिय समझनेवाला

जमाल- खूबसूरती )

सीमा श्रीवास्तव...

Sunday, December 14, 2014

भजन




प्रभू   के काते धागे हैं हम(आत्मा)

सोचो क्या बनना है..?

किस रंग में रंगना है तुमको

किस तन में बसना  है..


प्रभू के काते धागे हैं हम 

सोचो क्या बनना है..?


समझ नहीं पाओगे गर तो

उलझ उलझ रह जाओगे

फँस  के जीवन के जंगल में

उलझन  ही तुम  पाओगे 


बाती सा तुम समझो खुद को 

प्रभू नेह में जाओ डूब 

जलो साँझ के दीए भांति 

हो जाए आलोकित सब 


हो जाए आलोकित सब !!


- सीमा श्रीवास्तव 









Friday, December 12, 2014

छुप्पम छुपाई

कभी कभी कोई चीज
अचानक खो जाती है..
फिर आपसे यूँ  टकराती है

जैसे छुपम छुपाई
में छुपा कोई
कोई बच्चा अचानक

 टकरा जाये हमसे

और हस दे खिलखिला के ...
सीमा...

Wednesday, December 10, 2014

परफेक्ट लेडी




सुनो बहन,

परफेक्ट लेडी  बनने के

जोश  में ,मत हो परेशान

एक पैर पर खडी होकर

मत करो कमजोर

अपनी हड्डियॉ....

मत ज्यादा उलझाओ

इस दिमाग को,

कि  थोडी शांति,

थोडा सुकून,एक लम्बी सांस

और थोडा विश्राम कितना जरूरी है,

ये पता है मुझे ।

थकने  से पहले बैठो जरा

टूटने से पहले खुद से

जुडो जरा....


देखो,

सूरज तो सांझ तक  ढल जाता है,

पर तुम्हें तो चांद से भी

करनी होती है गुफ्त्गू..

बिन तुम्हारे घर का  चूल्हा

उदास लगता है....एक,

जूठा ग्लास भी इधर उधर

भटकता है..तो,

मैंने जो कहा उसका तुम ख्याल  रखना

रोज की भागदौड   में अपना भी

ध्यान  रखना....

सीमा श्रीवास्तव...





Tuesday, December 9, 2014

बुद्धु मन

    बुद्धु मन
**************

रोज ही खुद से
पूछती हूं कई प्रश्न
रोज ही कितने
गलत जवाब पाती हूं
ओ मन, तुझे मैं
कितना समझाती हूं.
फिर भी 
हर बार तुझे बुद्धू ही पाती हूं...

सीमा श्रीवास्तव.....

Monday, December 8, 2014

खुशी और गम



कभी कभी बहुत खुशी भी

अचानक उदास कर जाती है हमें,

हॉ , खुशियों के नीचे  जब

दब जाता है ढेर सारा गम

तो वह कराह उठता है दर्द से,

एहसास दे जाता है अपने दबे होने का,

यूं भी खुशियॉ बहुत

  हल्की होती हैं

कब छू हो जाती हैं पता भी नहीं लगता

और गम भारी होने से 

दबता  चला जाता है

गहराई में दिल के अंदर

बहुत अंदर.....

सीमा श्रीवास्तव..


Sunday, December 7, 2014

गमजदा

खुदा हमें जरा सा,

छोड देता है गमजदा 

कि गुरूर कहीं किसी को ऊपर ना ले उड़े.... 

हॉ.,कोई ना कोई गम हमें

वजनी(दुख से भारी) बना देता

कि जमीं  पर हमारे   पाँव रहे जमे....!!

- सीमा  

Friday, December 5, 2014

कतरन

(1)

कुछ कतरनो को 

सहेज के रखना जरूरी था..,

कि जाने कब कहॉ  

 पैबंद  लगानी पडे...

(2)

जिंदगी कभी भी..

चुका लेती है अपनी कीमत,

हर एहसान
का
  हिसाब किताब

 कर लो  साफ !!

-  सीमा श्रीवास्तव......



Thursday, December 4, 2014

जंगल

जंगल लगातार छांटें   जा रहे हैं ,

जंगली जानवर भाग रहे हैं इधर उधर..

तरह तरह के मुखौटे और परिधान पहनकर 

पर सब में भूख ,प्यास तो वही है जानवरो जैसी । 

मीठे फल नहीं भाते उन्हें ,

सड़ाते हैं वो उसे जमीन के अंदर दबा के 

कि असर गहरा हो दिलो दिमाग पर 

फिर उसे पीकर वे नोंच डालते हैं 

अपने मुखौटे  और परिधान ,

दिखाने लगते हैं तरह तरह के करतब 

कि कितनी देर वो छुपा सकते हैं 

अपनी असलियत को ,

आखिर दम तो किसी का भी घुटता है 

परदों के पीछे ,मुखौटे के अंदर 

छोड़ो रहने दो इन्हें जानवरो  जैसा 

कि 
जंगल के निवासी को कहाँ भाते हैं बागीचे!!

-  सीमा श्रीवास्तव 

Wednesday, December 3, 2014

कविता की कहानी



सुनो समाज, 

तुम्हारे दिए किसी चोट 

या क्रिया को मै जाया नहीं करती 

कि जैसे हर चोट से ,

लोहा लेता जाता है आकार 

जब जब  पीटता  है उसे 

मजबूत लुहार ,

जैसे लेती रहती है मिट्टी

नित ,नए आकार 

जब जब उसे  रौंध

चाक पे चढाता  है  कुम्हार,

तब  क्यों होने दूं  मैं किसी भी

क्रिया को बेकार.....



कि आओ हर चोट को ओढने को

बैठी  हूं मैं (कविता) तैयार...,

चलो, कोई अफसोस नहीं  है अब

कि  बहुत कुछ रचा जा  चुका है

तुम्हारे ही  दिये प्रहार से...,



कुछ हल्के,कुछ चटक,

हर तरह के रंग बिखर गये हैं

शब्दो के संसार में......!!


- सीमा श्रीवास्तव..

Saturday, November 29, 2014

मन रो पड़ता है



जब भी कोई सुन्दर फूल 

मुरझा के झड़ जाता है 

मन रो पड़ता है । 

जब भी   ढह जाती है 

 बच्चे की रेत की मीनार 

मन रो पड़ता है । 


जब  कोई तितली, पर 

फड़फड़ाने  से हो जाती है लाचार 

मन रो पड़ता है । 



जब भी दो  दोस्तो के  बीच 

पड़ जाती है दरार 

मन रो पड़ता है ।


हाँ कभी कभी ये मन 

हो जाता है अति संवेदनशील 


कि आँसू जब रूकने से

कर देते हैं इंकार 

मन रो पड़ता है । 

-  सीमा श्रीवास्तव 





Friday, November 28, 2014

समय की माँग

    समय की माँग 
%%%%%%%%

कभी कभी समय की मांग पे 

करवट ले लेता है अपने ही 

शब्दों का संसार ,
  लोगो का क्या है..?
..........*..............
  

मुझ पर भी कितने
लोग जाते हैं हस के 
चले जाते हैं

जब कभी दिख जाती हूँ मैं उन्हें 


पसीने से तरबतर चेहरे मे या
बिखरे हुये बालों मे


 या बिन मैचिंग दुप्पटे में,
हरबडाई सी खोलती
दरवाजे को,

कभी ड्राइंग रूम के बिखरे
कुशन पे  हंस देते है,


कभी किचेन मे
फैले बर्तनों पे चुटकी लेते है....

लोगो का क्या है..! 


अचानक ही तो घुस आते है,
किसी की भी जिंदगी में अधीर से


और जो दिख पडता है.उससे
ही गढ लेते है आपकी एक तस्वीर...


सीमा श्रीवास्तव 
कई नई परिभाषाऍ ,

ले लेती हैं जगह. ……… 

बदल जाते है कई भाव

 मन के ,

कि एक अहमियत 

बदल देती है 

आपकी दिनचर्या ,

आपकी रुचि ,

आपके शौक ,

आपका किरदार....

सीमा श्रीवास्तव 



प्रकाशपुंज

     प्रकाशपुंज
************ 

खिड़कियों पर चढ़ा दिए परदे 

कि  बाहर का अँधियारा 

हावी   ना होने पाए  ,

जोड़ लिया खुद को 

अंदर के उजियारे से 

हाँ ,जब भी  अन्धेरा 

बढ़ने लगे तब

 जोड़ लेना खुद को 

अंदर के उजाले से ,


आओ पहचानें खुद को 

हमारे अंदर  ही  छुपा है 

प्रकाशपुंज !!!

सीमा श्रीवास्तव 

आजादी

  ये कैसी  आजादी 
)))))))))(((((((((((((

नारी,तुम.....

हो चुकी हो विभाजित 

अलग अलग वर्गों में | 

कही दंभ ,कही जोश ,

कही करुणा ,कही रोष  

पुरानी परिभाषाएँ बदलती ,

नई परिभाषाएँ गढती ,

निकल आई हो बहुत आगे  
  

 दिख जाती हो 

 कभी किसी चौराहे पर 

सिगरेट के कश लगाती 


कभी आधे अधूरे कपड़ों में 

नृत्य करती और  मुस्कुराती । । 


पर ये कैसी आजादी ?

ये कैसी परिभाषा ?

कि, अपनी गरिमा को 

आजादी के इस झंडे से 

मत करो चोटिल । 

निकलो घर से पर 

अपनी पहचान लेकर,

अपने नए रूप से 

मत करो शर्मशार 

नारी जाति को ,

मत करो शर्मशार 

नारी जाति को !!


-  सीमा श्रीवास्तव 




Wednesday, November 26, 2014

भोर की आहट



देखो है बैचैन सूरज

कहने को कुछ भोर से

कलियॉ कसमसा रही हैं

पंक्षियो के शोर से

उडने को बेताब पंक्षी

भी हैं सुगबुगा रहे

पेड पौधे हिल डुल के

गीत गा रहे नए...

- सीमा श्रीवास्तव..


मन



एक ही दिन में

तेरे तीन रूप देख लिए..

 ऐ मन!  तूने कितनी तस्वीर

छुपा रखी हैं...??

हर पल तेरी ख्वाहिशें होती हैं जुदा

तूने मुटठी में मेरी तकदीर

छुपा रखी है....!!

सीमा श्रीवास्तव..



Monday, November 24, 2014

चूल्हा

       चुल्हा
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं

मैं हूं एक चूल्हा ....

माचिस की एक तिल्ली जलती है

फिर दूसरी,फिर तीसरी

 जलाने के लिये  आग,

आग लगती है,धुऑ उठता है

और सब कुछ धुंधला हो जाता है।

मैं जलना चाहती  हूँ पर 

गीले कोयले से उठता है धुऑ

और लोग उसे छोड दूर बैठ जाते हैंं....

सीमा श्रीवास्तव

(4 साल पुरानी  है ये रचना..) 

Saturday, November 22, 2014

कवि सम्मेलन

      कवि सम्मलेन 
^^^^^^^^^^^^^^^ 

काश हर शाम होता कवि सम्मलेन ,

रोज कविताओं में एक ललक होती । 

इतराती ,गुनगुनाती ,मचलती ,बल खाती 

यूँ  ही नहीं उदास  ये बैठी रहती !!

हर शाम छिटकते कई रंग एक साथ ,

कुछ लोग हँसते और बोलते एक साथ ,

एक सोच ,एक समझ ,एक महक होती 

हर रोज कविताओं  में एक ललक होती । 

चाय के प्यालो में एक सा स्वाद होता 

पीने वालों की पसंद ना अलग अलग होती 

काश हर शाम होता कवि सम्मलेन ,

रोज कविताओं में एक ललक होती ॥ 

सीमा श्रीवास्तव 

Friday, November 21, 2014

चाँद

       चाँद  
***********
१ 

ओ पूर्णमासी के चाँद ,

जब भी तुम्हे याद कर के 

मैं बेलती हूँ रोटियाँ ,

रोटियाँ तुझ सी ही बनती हैं 

बिलकुल गोल मटोल । 


- सीमा श्रीवास्तव 

२ 

चाँद से भला क्या 

शिकायत करूंगी मैं 

मेरी भी सूरत तो 

हर दिन बदल जाती है !!

-  सीमा श्रीवास्तव …… 

३ 


चाँद को कुछ इतना 

सराहा मैंने कि

 तीसरे दिन ही वह 

टेढ़ा नजर आने लगा । 

- सीमा श्रीवास्तव 

मन का अल्प विराम

 मन का अल्प  विराम
^^^^^^^^^^^^^^^^
कई बार ऐसा होता था

एक ठहराव सी आती थी

पर फिर खुद ही बहने लगती थी

मन की धारा ,

हाँ हर बार कोई ताकत

देती थी मेरा साथ

और खुशियो का सिरा

आ जाता था मेरे हाथ

मन फिर से हँसने लगता

और रम जाती  मैं

अपनी दीन दुनिया मेँ

जलने लगते थे दीप पूजा के ,

 ,हटने लगते थे

धूल और जाले ,और 

सज जाते थे बच्चों की

शरारतो से उजड़े सोफे और कुशन

पहले तो मन नहीं था बैठा रहता

मुरझाया चेहरा देख के इस तरह

ढूँढता था वो गुलाब जल ,चन्दन,

पढता था नए नए ब्यूटी टिप्स।


अपनी ही बातों को काटता

फिर अपनी ही बातो को मानता

बढ़ता रहता था मन।

अपने बच्चो को डाँटकर
फिर उन्हें मनाता  मन

अब चुपचाप देखा करता
है उन्हें  ,कुछ कहता नहीं!!

क्या ये भी मन का अल्प विराम है ???



हाँ ये मन का अल्प विराम ही  था

ऐसा होता रहता है,

मन रूकता ,बढ़ता रहता है ।
देखो ना .......

बच्चे अब बड़े हो चुके  हैं, कि यूँ ही

रूकते ,भागते बड़ी हो जाती है जिंदगी

यूँ ही चलती, निकल जाती है जिंदगी

इन अल्प विरामो से कभी  मत घबराना

कि जिंदगी का नाम है चलते जाना ।

- सीमा श्रीवास्तव

(मेरी एक पुरानी अधूरी रचना जो आज पूरी हो गई )

साजिश


1
  तुम्हारी साजिशो की
गिरफ्त में नहीं आ सकती मैं
कि आईने लगा रखे हैं मैंने
चारों तरफ....
सीमा श्रीवास्तव..

2
ये साजिशो की गलियॉ हैं
कदम रखना सोच समझ से..
कब कौन गटक जायेगा..
चकमे देकर और ठग के...

सीमा श्रीवास्तव....

3
मुकदर में रूसवाई ही
लिखी थी,लो..
सपने भी साजिश कर गए
जुदा करने की.....

सीमा श्रीवास्तव

Thursday, November 20, 2014

रेख्ता

      रेख़्ता 
^^^^^^^^^^ 

(१)

रेख्ता हैं मेरे जज्बात 

देखता क्या  है 

इधर उधर से समेटने 

मुझे ही पड़ते हैं। । 

सीमा 

(२ )
     फरिश्ते 
^^^^^^^^^^ 

अक्स बन के तेरा 

 आ जाते हैं कई 

मैं समझ जाती हूँ 

ये सब फरिश्ते हैं !!

सीमा 

Wednesday, November 19, 2014

देव तत्व

हाँ नहीं जग पाता

देव तत्व हमारे अंदर 

क्योकि हर बार बाहरी  आवरण  को

हम सँवारते है ,

सजाते है खुद को बाहर बाहर 

अंतर को कहॉ चमकाते है ..?

 रहते है उदासीन खुद से हम

औरो को देख मचल जाते हैं । 

अपनी  चमक पर चढ़ा के परतें ,

दूसरों की चमक पर भरमाते हैं । 

मिटा के अंदर के अंधियारे को 

अपने अंतर को चमका लो तुम।  

बाहरी रूप एक छलावा है 

बस अंतर को अपना लो तुम !!

सीमा श्रीवास्तव....

-










जीवन का आधार

    जीवन का आधार
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं


नारी तुम नायाब कृति हो ,

जीवन का आधार तुम्ही हो 

फिर भी कितने संकट तुम पर

संशय में हर पल जीती हो ।

जहाँ रचियता भी हारा है 

वहाँ हुई है तेरी जीत ,

प्राण जहाँ निष्प्राण हुआ है 

वहाँ है बोई तुमने प्रीत !!


 रचती हो  तुम्हीं सृष्टि को ,

तुम्ही भूत ......भविष्य तुम्ही हो !

बेटी ,बहन ,माँ ,भार्या 

इन रूपोँ मेँ तुम्ही सजी हो !

 करें पुरुष  तुम्हारी रक्षा...

मेरी  है बस यही गुहार

वरना  धरती पर कौन करेगा

मानव कडियों को तैयार....??

-सीमा श्रीवास्तव



Friday, November 14, 2014

दुआ


कभी कभी आ तो जाती हूँ 
तेरे दर पर चल के
पर दुआओ के लिये
नहीं उठते ये हाथ
बस यूँ  ही एक टक
देखती हूँ  तुम्हे...
कि तू देख रहा है
कि नहीं देख रहा..!!
.
- सीमा श्रीवास्तव 
 हमेशा दुआएं मांगते रहिये..कभी ना कभी तो ये जरूर कबूल होंगी और खुद से ज्यादा दूसरो के लिये मांगिए और फिर देखिये उसका असर..  ...

जीवन का सत्य



जीवन का सत्य
नही आने देता हमे
अपने पास कि
जिस दिन हम
 समझ लेंगे इसे,

 जिंद्गी के बहुत सारे खेल
हो जायेंगे बेमजा...
इसिलिये वो सत्य हमेशा
भागता है हमसे दूर और
 हम उलझे रहते है
दुनिया में बिछाये खेलो में..
.,झमेलो में और
रेलमपेलो में.....
-सीमा.....

Tuesday, November 11, 2014

बाल मजदूर

   बाल मजदूर
*************

 बाल मजदूर

 पैदा ही होते हैं

माँ की कोख से

वज्र बन के ,

 माँ के पेट में ही

सीख लिया होगा

इन्होंने ,बोझ उठाना ,

तोड़ना पत्थरों को

कचरे मेँ से चुन लेना

काम के सामान


ये रोते नहीं

अपनी हालत पर

इनका हौसला मजबूत

होता जाता है मेहनत से

दिनबदिन ,

इनकी पेशानी पे

होती है एकअलग ही चमक

इनका जज्बा होता है देखने लायक

मैं ये नहीं कहती कि

बाल मजदूरी शोषण नहीं,

बस  देखती हूं इन्हें

हैरान होकर जो इतने

अभावों में भी मुस्कुराते हैं

और जूझते रहते हैं जीवन के

भँवर के साथ ,साहस की

पतवार लेकर!!

और हम इनपर चार शब्द

लिखकर या बोलकर

आगे बढ जाते हैं |और है क्या

हमारे बस में........

सीमा श्रीवास्तव










Monday, November 10, 2014

अँगीठी

        अँगीठी 
))))))))))#(((((((((((

घर की अँगीठी  जलती है तो 

पकता है  उसपर भोजन ,

तीज ,त्योहारो के पकवान 

पर हर रोज अंदर ही अंदर 

सुलगती है जो अँगीठी 

उससे जलता रहता है 

हमारा अपना ही खून !


कितनी बार ये जलती है 

कितनी बार हम इसे बुझाते हैं ,

हम गिन भी नहीं पाते 

हर दिन कुछ तीलियाँ 

रगड़ खा के भड़क जाती हैं 

और सुलग जाती है

 हमारे अंदर की अँगीठी 


इन अँगीठियो को भड़काने में 

कुछ लोग कोई कोर कसर नहीं छोड़ते कि 

वो वाकिफ होते हैं हमारे कमजोर पहलू से 


रोज चाहती हूँ कि सिर्फ 

घर की अँगीठी जलती रहे 

और तृप्त होती रहे 

हर सदस्य की जिहवा ,मन और उदर 

पर अंदर की अंगीठियाँ  भी जलने से 

कहाँ बाज आती हैं और 

प्रभावित कर ही जाती हैं 

घर की अँगीठियो को कहीं न कहीं! 


- सीमा श्रीवास्तव 


   भूलभुलैया 
************


बचपन से अब  तक
कितना कुछ पढा
सुना  ,याद  किया ,

कितनी बातों ने
उलझाया मुझे,

कितने किस्सों ने 
बहलाया मुझे ,

कुछ याद रहा 

कुछ ना चाहते हुए भी 
भूल गई और 

कुछ को भुलाना पड़ा 
खुद को ज़िंदा रखने खातिर 

कि इस भूलभुलैया सी
 जिंदगी में ,

सच में कुछ बातें 
चाहते हुए भी कहाँ 
याद रह पाती हैं और 

कुछ को भूलाने की 
कोशिश करते रह जाते हैं 
 हम ताउम्र पर वो 

विस्मृत कहाँ हो पाती हैं !! 

सीमा श्रीवास्तव 

Sunday, November 9, 2014

              मनहूस बस्ती 
(((((((((((((((((((((((((((((((((((((

तितलियाँ यहाँ उड़ती नहीं 

 बैठी रहती हैं  किसी कोने में दुबककर

मरती नहीं ,पर हो चुकी है रंगहीन । 

फूल यहाँ खिलते हैं पर मुस्कुराते नहीं 

खिलना और मुरझाना एक 

दिनचर्या भर है । 

पंछी भी नहीं करते अपनी 

मनमर्जी यहाँ ,सुबह जागते हैं 

दाने  की खोज में विचर  के 

शाम होते ही 

दबे पाँव घोसले में 

घुस जाते हैं । 

रात को सपनों  में भी 

नहीं करते शोर !

क्योकि इस मनहूस बस्ती को 

प्रकृति के रंग नहीं भाते 

बस मशगूल रहते हैं लोग यहाँ 

इंसानो को मशीन में तब्दील करने को 

हवाओ की भी  किसी को नहीं परवाह 

कि सबने बंद कर रखी हैं 

अपनी खिडकियाँ यहाँ !!

सीमा श्रीवास्तव 






दीदी

       बहनो का सुख 
>>>>>>>>>>>>>>>

कल मैंने एक स्वप्न देखा
मै फिर से हो गयी हूं छोटी
ढेर सारी दीदियों से घिरी इतरा रही हूं

एक ने गोद में मुझे लिटाया है,

दूसरी सहला रही हैं मेरे केश,
तीसरी दी कहानियॉ सुना रही हैं
मीठी मीठी,
तभी अम्मा ने कस के डांटा मुझे,
कहा....
" उठाती रहो मजे दीदियों के
आलसी हो जाओगी"
तब बडी दी ने बीच में ही
बदल डाली बात
कहा....."रहने दो ना छोटी को छोटी"
कहानी आगे बढती रही स्वप्न में ही...
मैने पढने के लिये जाना चाहा बाहर
पिताजी ने साफ इंकार कर दिया
पर मंझली दी ने कैसे भी समझा बूझा लिया
मै बांधने लगी बैग...,दीदियो को
रोकर गले लगाया...
तभी मेरे बेटे ने मुझे नींद से जगाया
ओह! कितना प्यारा था वह स्वप्न
काश ! यह सच हो जाता !!

सच  यही तो होता है बहनो का सुख
नहीं देखा जाता उनसे छोटे का दु:ख
मिलता है सच मे ,जिन्हे बहनों का प्यार
दिल होता है मजबूत और
हिम्मत बढती है यार ...!!
सीमा श्रीवास्तव

Friday, November 7, 2014

ओम

मैंने रचना चाहा 

अपनी नई कलम से 

एक सुन्दर सी रचना 

कलम की देह पर 

चिपके थे पूजा के 

अक्षत ,चन्दन ।

वह लिखती गई  
ओम, ओम, ओम

कि उसकी स्याही में 

बस गए थे ,

भक्ति भाव ,

कलम चलती रही 

और मन में 

जगते रहे

सद्विचार। 

- सीमा श्रीवास्तव 





Sunday, November 2, 2014

परवाह

अंत भला तो सब भला
################# 

जिसने कभी नहीं की 

उसकी परवाह ,

सिर्फ समझा जिसे

 सेविका और उठाता रहा 

उसके प्रेम से परोसे 

भोजन का आनंद 

खुद को लापरवाह रखा 

उसके दुःख ,तकलीफ से ,

उसके अरमानो  से,

उसकी पसंद, नापसंद से 

आज वही कर रहा है 

इंतजार, उसी सेविका के 

अस्पताल से लौट आने का 

खूब पछता रहा है ,

रो रहा है वह 

अंदर ही   अंदर 

बस वो तीन दिन  काफी थे ,

उसे यह मान लेने को 

कि वह स्त्री जिसे वह मात्र 

सेविका समझता रहा 

कितनी कीमती है । 

कितना ऊपर है 

उस स्त्री का अस्तित्व 

उसकी सोच की परिधि से ,

जिसे इन चालीस सालों से वह 

सेता आया है ,अपने दिमाग में !!

तो क्या इसे हम कह सकते हैं
  
कि 
अंत भला तो सब भला !!!


सीमा श्रीवास्तव 

जिंदगी



नहीं मिल रहे हैं शब्द
ना ही दो पल का सुकून
कि टुकड़ों में बंट गयी है जिंदगी

हाँ, अपनी कहॉ रह गयी है जिंदगी

कितने कतरनो को बटोरा मैंने,

कितने पैबंद लगाए हमने,

कितने रंगो से छुपाया सादापन,

फिर भी नही सज रही है जिंदगी

हाँ,  अपनी कहॉ रह गयी है जिंदगी!!

सीमा  श्रीवास्तव